
Monday, November 23, 2009
आजमगढ़ की पहचान दाऊद नहीं शकील है
मैं मीडिया पेशेवर हूं और आजमगढ़ का रहने वाला हूं। एक बार एक इंटरव्यू में एक संपादक महोदय ने मुझसे पूछा लिया कि आपको लगता नहीं कि आजमगढ़ के लोगों को शक की नजरों से देखा जाने लगा है। मैं उनका इशारा समझ गया था लेकिन फिर भी पूछ लिया-क्यों?? वह भी मेरा इशारा समझ गए लेकिन बात निकल चुकी थी, बोले-अबू सलेम, सिमी, आईएसआई, अंडरवल्रर्ड और कई आतंकियों के तार वहां जुड़ते हैं। मैंने कहा-यह मीडिया की देन है...अबू सलेम आजमगढ़ से था तो क्या अब आजमगढ़ को इनके नाम से जाना जाएगा? राहुल सांकृत्यायन, राही मासूम रजा, कैफी आजमी, शबाना आजमी इसी धरती से पैदा हुए तो इस धरती को उनके नाम से क्यों न जाना जाना चाहिए।
यह बात बीते साल भर होने को है। आज उसी संपादक के नेतृत्व में निकलने वाले अखबार में अंतिम पेज पर दो कालम में आजमगढ़ के शकील की खबर छपी है। खबर कुछ यूं है--
ÒÒ इंसान में अगर दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो कुछ भी असंभव नहीं होता। इस बात को साबित किया है उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में निजामाबाद निवासी शकील ने। वह सरकारी सहायता के बिना चंदा मांगकर धन इकट्ठा कर पुलों के निर्माण में जुटे हुए हैं। एक रुपये चंदे से शुरू हुआ यह उनका यह जोश एक पुल का तोहफा जनता को दे चुका है। अभी आगे भी उनका इस अभियान को जारी रखने का इरादा है। शकील ने एक एक रुपए चंदा मांगकर क्षेत्र में पुल बनाने का काम शुरू किया और देखते ही देखते उनका सपना साकार हुआ। जनसहयोग से लगभग 65 लाख रुपए की लागत से क्षेत्र में पुल का निर्माण कर इसे जनता को समर्पित कर दिया गया। शकील इसके बाद भी रुके नहीं हैं और वह क्षेत्र में ही एक और पुल का निर्माण कराने में लग गए हैं। वह तीसरे पुल के निर्माण की अच्छा भी संजोए हुए हैं। जनमानस से जुड़ी उनकी इस महत्वाकांक्षी पुल योजना की खास बात यह है कि इसमें शासन प्रशासन और जन प्रतिनिधियो से सहयोग के नाम पर धेला भी न मिला और न ही लिया गया पर पुल का निर्माण हो गया। शकील ने बताया कि उन्हें पुल बनवाने का जुनून उस समय सवार हुआ जब लगभग छह वर्ष पूर्व आजमगढ़ जनपद में सरायमीर के पास के एक विद्यालय के बच्चे नाव से नदी पार कर स्कूल जा रहे थे कि अचानक तभी नाव पलट गई, जिसमें 11 च्च्चे तो बचा लिए गए परन्तु एक बच्चा डूब कर मर गया। एक बच्चे के डूबने की इस घटना ने शकील को झकझोर दिया और उसे नदी पर पुल बनाने का जुनून सवार हो गया। जब चंदे की रकम खत्म हो जाती तब निर्माण कार्य बंद हो जाता। ÓÓ
यह खबर ही उन संपादक महोदय या इस तरह के बेजा सवाल उठाने वालों का जवाब है और सवाल भी कि जब आतंकवाद का रिश्ता आजमगढ़ से जुड़ता है तो उसे लीड मार देते हैं...और उसे और सेंसेशनल-चटपटेदार बना देते हैं जबकि साकारात्मक खबर को खा जाते हैं। नाकारात्मक टीआरपीबाजी के मारे चैनल ही नहीं अखबार बेचारे भी हैं।
यह बात बीते साल भर होने को है। आज उसी संपादक के नेतृत्व में निकलने वाले अखबार में अंतिम पेज पर दो कालम में आजमगढ़ के शकील की खबर छपी है। खबर कुछ यूं है--
ÒÒ इंसान में अगर दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो कुछ भी असंभव नहीं होता। इस बात को साबित किया है उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में निजामाबाद निवासी शकील ने। वह सरकारी सहायता के बिना चंदा मांगकर धन इकट्ठा कर पुलों के निर्माण में जुटे हुए हैं। एक रुपये चंदे से शुरू हुआ यह उनका यह जोश एक पुल का तोहफा जनता को दे चुका है। अभी आगे भी उनका इस अभियान को जारी रखने का इरादा है। शकील ने एक एक रुपए चंदा मांगकर क्षेत्र में पुल बनाने का काम शुरू किया और देखते ही देखते उनका सपना साकार हुआ। जनसहयोग से लगभग 65 लाख रुपए की लागत से क्षेत्र में पुल का निर्माण कर इसे जनता को समर्पित कर दिया गया। शकील इसके बाद भी रुके नहीं हैं और वह क्षेत्र में ही एक और पुल का निर्माण कराने में लग गए हैं। वह तीसरे पुल के निर्माण की अच्छा भी संजोए हुए हैं। जनमानस से जुड़ी उनकी इस महत्वाकांक्षी पुल योजना की खास बात यह है कि इसमें शासन प्रशासन और जन प्रतिनिधियो से सहयोग के नाम पर धेला भी न मिला और न ही लिया गया पर पुल का निर्माण हो गया। शकील ने बताया कि उन्हें पुल बनवाने का जुनून उस समय सवार हुआ जब लगभग छह वर्ष पूर्व आजमगढ़ जनपद में सरायमीर के पास के एक विद्यालय के बच्चे नाव से नदी पार कर स्कूल जा रहे थे कि अचानक तभी नाव पलट गई, जिसमें 11 च्च्चे तो बचा लिए गए परन्तु एक बच्चा डूब कर मर गया। एक बच्चे के डूबने की इस घटना ने शकील को झकझोर दिया और उसे नदी पर पुल बनाने का जुनून सवार हो गया। जब चंदे की रकम खत्म हो जाती तब निर्माण कार्य बंद हो जाता। ÓÓ
यह खबर ही उन संपादक महोदय या इस तरह के बेजा सवाल उठाने वालों का जवाब है और सवाल भी कि जब आतंकवाद का रिश्ता आजमगढ़ से जुड़ता है तो उसे लीड मार देते हैं...और उसे और सेंसेशनल-चटपटेदार बना देते हैं जबकि साकारात्मक खबर को खा जाते हैं। नाकारात्मक टीआरपीबाजी के मारे चैनल ही नहीं अखबार बेचारे भी हैं।
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