नेपाली संविधान सभा के चुनाव में माओवादियों की जीत से भारत में मलाई छांटने वालों के चेहरे पर डर और सिहरन की सिलवटें देखीं जा सकती हैं। उन्हें डर किस बात का है? दरअसल संविधान को तकॆ और प्रश्न से परे दैवीय ग्रंथ बनाकर ६० साल से कथरी ओढ़ने वाली जनता के कफन से भी टैक्स वसूलने वाली इस जमात को डर है कि कहीं यहां भी उस पवित्र संविधान पर प्रश्नचिन्ह न उठने लगे। यह तो सिफॆ बहाना है कि नेपाल घटनाक्रम से यहां माओवादी और हिंसक हो जाएंगे। लेकिन देर-सबेर भारतीय संविधान पर सवाल तो खड़ा होगा ही।
संविधान है या षणयंत्र
जनता को भेड़ बनाए रखने के लिए पहले राजा-महराजा खुद को भगवान घोषित करने का षणयंत्र रचते थे। जमाना बदला अब लोग बेवकूफ नहीं रहे कि भगवान के नाम पर खुद को मुरदाखोरों के हवाले कर दें। आज के शाषकों के लिए एक ऐसी चीज अपरिहायॆ थी जिसके नाम पर वह जनता को अपने पैरों तले दबाए रख सके। वह चीज बन गई संविधान। शासकों के लिए यह वह ढाल है जो उन्हें जनता के नाक में नथ पहनाने के सारे अधिकार देता है। यह ऐसा आलादीन का चिराग है जो शासकों के लिए उनके मनपसंद दमन के हथियार यूं ही मुहैया करा देता है। इसके लिए उदाहरण नहीं देना होगा कि कैसे न्यायपालिका कुछ मुट्ठी भर लोगों के लिए न्याय के साथ बलात्कार करती है, सुरक्षा बल उनके लिए आम जनता का खून बहाने से भी नहीं हिचकते, नीतियां उनकी झोली भरने के लिए बनायी जाती हैं।तो भाईसाहब यह संविधान जो है वह षणयंत्र है और इस पर भी सवाल उठेगा ही। इस सवाल को माओवादी हिंसा या आतंकवाद के नाम पर बहुत दिन तक लॉकर में बंद नहीं रख सकते। नेपाल के जन आंदोलन तो यही बताता है।
Thursday, April 17, 2008
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