
भोपाल के मीडिया में बाजार में इन दिनों काफी उथल-पुथल मची हुई है। हाल ही में लांच हुए दो अखबारों में स्थापित होने की होड़ मची हुई है। दोनों चाहते हैं कि किसी भी तरह से दैनिक भास्कर से आगे निकला जाए। इसी जद्दोजहद के चलते एक अखबार ने तो दूसरे पर कीचड़ उछालना भी शुरु कर दिया है। ज्यादा सस्पेंस न बनाते हुए मैं यह बता देना चाहता हूं कि कीचड़ उछालने वाला अखबार कोई और नहीं बल्कि खुद को सभ्यता और संस्कृति का झंडाबरदार कहने वाला राजस्थान पत्रिका है। राजस्थान पत्रिका ने हाल ही में पत्रिका नाम से भोपाल में संस्करण की शुरुआत की है। कंपनी के मालिक और संपादक गुलाब कोठारी जी को एक बार मुंबई में सुनने का मौका मिला तो ऐसा लगा था कि क्या वाकई आज की गलाकाट कॉरपोरेट प्रतिस्पर्धा के युग में भी इस मानसिकता वाले मालिक हैं। बड़े ही निश्छल भाव से धर्म-कर्म की बातें करने वाले मालिक का अखबार कैसा होगा यह जानने की मेरी इच्छा प्रबल होती चली गई।
कोठारी जी का कहना था कि 'हम प्रतिस्पर्धा में नहीं स्पर्धा में विश्वास रखते हैं। हम दूसरे की लकीर को छोटा करने के बजाय अपनी लकीर बढ़ाने को अपनी शान समझते हैं।'
पर मेरा यह भ्रम बहुत दिनों तक नहीं रह सका। इस मृग-मरीचिका के कुछ ही महीनों बाद मुझे जयपुर में काम करने का मौका मिल गया। कमोबेश जिस समय मैंने वहां ज्वाइन किया उसी महीने आईआरएस की रिपोर्ट आई। जिसमें यह बताया गया कि दैनिक भास्कर जयपुर शहर में अव्वल हो गया है। बस फिर क्या था। कुछ दिनों बाद ही राजस्थान पत्रिका ने पर्चा वार शुरु कर दिया। जिसमें जी भर के भास्कर को कोसा जाता था। पत्रिका की श्रेष्ठता के लिए जो तर्क दिए जाते वो आम लोग तो समझ न आने के चलते पचा लेते पर जानकारों को हैरानी होती कि राजस्थान पत्रिका ऐसा क्यों कर रहा है। यह वही संस्थान है जहां संपादक नाम की संस्था मालिक की कुर्सी के नीचे दबी हुई है। यदि आपको कभी राजस्थान जाने का मौका मिले तो एक बार राजस्थान पत्रिका जरुर पढ़िएगा। आप किसी भी शहर में होंगे तो अखबार की प्रिंटलाइन में आपको श्रीमान गुलाब कोठारी जी का ही नाम पढ़ने को मिलेगा। खैर मैं यह बताना चाह रहा हूं कि कोठारी जी का भाषण तो कुछ और था और हकीकत कुछ और। वहां कर्मचारी से भी बड़ा मालिक है। पूरे समूह की सत्ता महज ५-६ लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है। चाटूकारों को तवज्जो और फायदा दिया जाता है। अपना वहीं बर्ताव पत्रिका भोपाल में भी दिखा रहा है। दूसरे की गलतियों को दिखाकर खुद को श्रेष्ठ साबित करना। यदि किसी अखबार को स्थापित करना हो तो उसके कंटेंट को दूसरे से बेहतर बनाने की कोशिश की जाती है न कि इस तरह से पंपलेट बंटवाए जाते हैं। ऐसा ही कुछ प्रयोग राज एक्सप्रेस ने भी खुद को स्थापित करने के लिए किया था पर पाठकों ने उसे नकार दिया। इस सारी गंदगी से किसी अखबार की छवि अच्छी नहीं बनेगी बल्कि आम नागरिकों में यह भावना घर कर जाएगी कि मीडिया में सबसे ज्यादा गंदगी है। इस तरह के एडवरटाइजमेंट टीवी पर एफएमसीजी उत्पादों के बीच अच्छे लगते हैं अखबारों के बीच नहीं। अखबार की समाज में गरिमा होती है जिसे बनाए रखना हर अखबार का दायित्व है।
कोठारी जी का कहना था कि 'हम प्रतिस्पर्धा में नहीं स्पर्धा में विश्वास रखते हैं। हम दूसरे की लकीर को छोटा करने के बजाय अपनी लकीर बढ़ाने को अपनी शान समझते हैं।'
पर मेरा यह भ्रम बहुत दिनों तक नहीं रह सका। इस मृग-मरीचिका के कुछ ही महीनों बाद मुझे जयपुर में काम करने का मौका मिल गया। कमोबेश जिस समय मैंने वहां ज्वाइन किया उसी महीने आईआरएस की रिपोर्ट आई। जिसमें यह बताया गया कि दैनिक भास्कर जयपुर शहर में अव्वल हो गया है। बस फिर क्या था। कुछ दिनों बाद ही राजस्थान पत्रिका ने पर्चा वार शुरु कर दिया। जिसमें जी भर के भास्कर को कोसा जाता था। पत्रिका की श्रेष्ठता के लिए जो तर्क दिए जाते वो आम लोग तो समझ न आने के चलते पचा लेते पर जानकारों को हैरानी होती कि राजस्थान पत्रिका ऐसा क्यों कर रहा है। यह वही संस्थान है जहां संपादक नाम की संस्था मालिक की कुर्सी के नीचे दबी हुई है। यदि आपको कभी राजस्थान जाने का मौका मिले तो एक बार राजस्थान पत्रिका जरुर पढ़िएगा। आप किसी भी शहर में होंगे तो अखबार की प्रिंटलाइन में आपको श्रीमान गुलाब कोठारी जी का ही नाम पढ़ने को मिलेगा। खैर मैं यह बताना चाह रहा हूं कि कोठारी जी का भाषण तो कुछ और था और हकीकत कुछ और। वहां कर्मचारी से भी बड़ा मालिक है। पूरे समूह की सत्ता महज ५-६ लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है। चाटूकारों को तवज्जो और फायदा दिया जाता है। अपना वहीं बर्ताव पत्रिका भोपाल में भी दिखा रहा है। दूसरे की गलतियों को दिखाकर खुद को श्रेष्ठ साबित करना। यदि किसी अखबार को स्थापित करना हो तो उसके कंटेंट को दूसरे से बेहतर बनाने की कोशिश की जाती है न कि इस तरह से पंपलेट बंटवाए जाते हैं। ऐसा ही कुछ प्रयोग राज एक्सप्रेस ने भी खुद को स्थापित करने के लिए किया था पर पाठकों ने उसे नकार दिया। इस सारी गंदगी से किसी अखबार की छवि अच्छी नहीं बनेगी बल्कि आम नागरिकों में यह भावना घर कर जाएगी कि मीडिया में सबसे ज्यादा गंदगी है। इस तरह के एडवरटाइजमेंट टीवी पर एफएमसीजी उत्पादों के बीच अच्छे लगते हैं अखबारों के बीच नहीं। अखबार की समाज में गरिमा होती है जिसे बनाए रखना हर अखबार का दायित्व है।